Tuesday 11 June 2013

बीमार को मरज की दवा देनी चाहिये

बीमार को मरज की दवा देनी चाहिये
में पीना चाहता हूं पिला देनी चाहिये
अल्लाह बरकतों से नवाजेगा इश्क में
है जितनी पूंजी पास लगा देनी चाहिये
में ताज हूं तो ताज को सर पर सजायें लोग

में खाक हूं तो खाक उड़ा देनी चाहिये

कभी दिमाक कभी दिल कभी नजर में रहो
ये सब तुम्हारे ही घर है किसी भी घर में रहो

-साभार राहत इन्‍दौरी साहब 

Monday 10 June 2013

चलो इश्क करें......

आज हम दोंनों को फुर्सत है चलो इश्क करें
इश्क दोंनों की जरूरत है चलो इश्क करें
इसमें नुकसान का खतरा ही नहीं रहता है
ये मुनाफे की फिजारत है चलो इश्क करे
आप हिन्दु में मुसलमान ये ईसाई वो सिख

यार छोड़ो ये सियासत है चलो इश्क करें......

जाके ये कह दे कोई शोलों से चिंगारी से
फूल इस बार खिले है बड़ी तैयारी से
वादशाहों से भी फेंके हुये सिक्के न लिये
हमने खैरात भी मांगी है तो खुददारी से 

- साभार राहत इन्‍दौरी साहब

Thursday 6 June 2013

समन्दरों के सफर में हवा चलाता है

समन्दरों के सफर में हवा चलाता है
जहाज खुद नहीं चलते खुदा चलाता है

तुझे खबर नहीं मेले में घूमने वाले
तेरी दुकान कोई दूसरा चलाता है

ये लोग पांव नहीं जहन से अपाहिज है
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है

हम अपने वूढे चिरागों पे खूब इतराये

और उसको भूल गये जो हवा चलाता है

-साभार राहत इन्‍दौरी साहब 

Wednesday 5 June 2013

उंगलिया यूं न सब पर उठाया करो

उंगलिया यूं न सब पर उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो

जिन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे
वारिशों में पतंगें उड़ाया करो

शाम के बाद जब तुम सहर देख लो
कुछ फकीरों को खाना खिलाया करो

दोस्तों से मुलाकात के नाम पर
नीम की पत्तियों को चबाया करो

चॉद सूरज कहां अपनी मन्जिल कहां
ऐसे बेसों को मुंह मत लगाया करो

घर उसी का सही तुम भी हकदार हो
रोज आया करो रोज जाया करो

-साभार राहत इन्‍दौरी साहब 

Monday 3 June 2013

उसकी कथ्थई आंखों में है जंतर मंतर सब

उसकी कथ्थई आंखों में है जंतर मंतर सब
चाकू बाकू छुरियां वुरियां खंजर बंजर सब

जिस दिन से तुम रूठीं मुझसे रूठे रूठे हैं
चादर वादर तकिया वकिया विस्तर विस्तर सब

मुझसे विछड़के वो भी कहां पहले जैसी है
फीके पड़ गये कपड़े वपड़े जेवर वेवर सब

आखिर में किस दिन डूबूंगा फिकरें करते हैं
दरिया वरिया कश्ती वश्ती लंगर बंगर सब

-राहत इन्‍दौरी साहब (Rahat Indori Sahab)

Wednesday 22 May 2013

तुमको चाहा और कुछ सोचा नहीं


हमने दुनिया की तरफ देखा नहीं
तुमको चाहा और कुछ सोचा नहीं

दिल कि जैसे पाक मरियम की दुआ
उसके चेहरे पर कोई चहरा नहीं

ख्वाव तो कब के तुम्हारे हो चुके है
एक दिल था वो भी अब मेरा नहीं

तुमने आखिर सुबह से क्या कह दिया
आज सूरज शर्म से निकला नहीं

- श्री आलोक श्रीवास्‍तव (Alok Shrivastv)

असर बुजर्गो की नैमतों का हमारे अन्दर से झॉंकता है


असर बुजर्गो की नैमतों का हमारे अन्दर से झॉंकता है
पुरानी नदिया का मीठा पानी नये समन्दर से झॉंकता है

ना जिस्म कोई, न दिल, न आंखें मगर ये जादूगरी तो देखो
हरेक शह में धड़क रहा है हरेक मंजर से झॉंकता है

लवों पे खामोशियों का पहरा, नजर परेशां, उदास चेहरा
तुम्हारे दिल का हरेक जज्बा तुम्हारे तेवर से झॉंकता है

गले में मॉं ने पहन रक्खे हैं महीन धागे में चन्द मोती
हमारी गर्दिश का हर एक सितारा उस एक जेवर से झॉकता है

थके पिता का उदास चेहरा उभर रहा है यूं मेरे दिल में
कि प्यासे वादल का अक्स जैसे किसी सरोवर से झॉकता है

चहक रहे चमन में पंक्षी दरख्त अंगड़ाई ले रहे है
बदल रहा है दुखों का मौसम बसन्त पतझड़ से झॉंकता है

-श्री आलोक श्रीवास्‍तव (Sh. Alok Shrivastav)

Tuesday 14 May 2013

जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है


जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है
एक पहेली—सी दुनिया ये गल्प भी है ​इतिहास भी है

चिंतन के सोपान पे चढ़ कर चॉंद—सितारे छू आये
लेकिन मन की गहराई में माटी की बू—बास भी है

इंद्रधनुष के पुल से गुजर कर इस बस्ती तक आए हैं
जहॉं भूख की धूप सलोनी चंचल है बिंदास भी है

कंकरीट के इस जंगल में फूल खिले पर गंध नहीं
स्मृतियों की घाटी में यूं कहने को मधुमास भी है

—अदम गोंडवी (Adam Gaundvi)

Wednesday 8 May 2013

आग के पास कभी मोम को लाकर देखूं


आग के पास कभी मोम को लाकर देखूं
हो इजाजत तो तुझे हाथ लगाकर देखूं
दिल का मन्दिर बड़ा वीरान नजर आता है
सोचता हूं तेरी तस्वीर लगाकर देखूं

तूफानों से आंख मिलाओ, शैलाबों पर बार करो
मल्हाओं का चक्कर छोड़ो तैर कर दरिया पार करो
फूलों की दुकानें खोलो खुशबू का व्यापार करो
इश्क खता है तो यह खता एक बार नहीं सौ बार करो

जो जवानियों में जवानी को धूल करते हैं
जो लोग भूल नहीं करते वो भूल करते हैं
अगर अनारकली है शबब बगावत का
सलीम हम तेरी शर्ते कबूल करते हैं

मौसम का ख्याल रक्खा करो कुछ खून में उबाल रक्खा करो
लाख सूरज से दोस्तानां रहे कुछ जुगनू भी पाल रक्खा करो

—राहत इन्दौरी साहब

Sunday 5 May 2013

मैंने आहूति बन कर देखा


मैं कब कहता हूं जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूं जीवन—मरू नंदन—कानन का फूल बने
कांटा कठोर है तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है
मैं कब कहता हूं वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने

मैं कब कहता हूं मुझे युद्ध मैं कहीं न तीखी चोट मिले
मैं कब कहता हूं प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले
मैं कब कहता हूं विजय करूं मेरा उंचा प्रासाद बने
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली सी याद बने

पथ मेरा प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे
मैं प्रस्तुत हूं चाहे मिटटी जनपद की धूल बने
फिर उसी धूली का कण—कण भी मेरा गति—रोधक शूल बने

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है—
क्या वह केवल अवसाद—मलिन झरते आंसू की माला है
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव—रस का कटु प्याला है
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है।

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया
मैंने आहूति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है
मैं कहता हूं, मैं बढता हूं, मैं नभ की चोटी चढता हूं
कुचला जाकर भी धूली—सा आंधी सा और उमड़ता हूं

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि—धार बने
इस निर्मम रण में पग—पग का रूकना ही मेरा वार बने
भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

अज्ञेय (Ageya)

Saturday 4 May 2013

था तुम्हें मैंने रूलाया


था तुम्हें मैंने रूलाया

हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा
हाय, मेरी कटु अनिच्छा
था बहुत मॉंगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया
था तुम्हें मैंने रूलाया।

स्नेह का कण तरल था,
मधु न था, न सुधा—गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया
था तुम्हें मैंने रूलाया

बूंद कल की आज सागर,
सोचता हूं बैठ तट पर —
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया
था तुम्हें मैंने रूलाया

— बच्चन (Bachhan)

Tuesday 30 April 2013

नर हो न निराश करो मन को (Nar ho na Nirash Karo man Ko)


नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्व यहॉं
फिर जा सकता वह सत्व कहॉं
तुम स्वतत्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाये अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को।

— श्री मैथलीशरण गुप्त
(Mathli sharan Gupt)

Monday 22 April 2013

हम पंक्षी उन्मुक्त गगन के


हम पंक्षी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऐंगे
कनक तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऐंगे।
हम बहता जल पीने बाले
मर जाऐंगे भूखे प्यासे
कहीं भली है कटक निबोरी
कनक कटोरी की मैदा से।
स्वर्ण—श्रंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण सी चोंच खोल
चुगते तारक—अनार के दाने।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉसों की डोरी।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न—भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिये हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।

—शिवमंगल सिंह'सुमन'
(Shiv Mangal Singh 'Suman')

Saturday 20 April 2013

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना (Jalao diye par rahe dhyan itna)


जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अॅधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मत्र्य मिटटी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाये, निशा आ ना पाये
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अॅधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिये भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूं ही,
भले ही दिवाली यहॉं रोज आये,
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अॅधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अॅंधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अॅंधेरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आये
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अॅधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

— पदमश्री श्री गोपाल दास नीरज
(Padamshri Shri Gopal Das Neeraj)

Friday 19 April 2013

कुछ छोटे सपनों के बदले (Kuch Chote sapno ke badle)


कुछ छोटे सपनों के बदले,
बड़ी नींद का सौदा करने,
निकल पड़े हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे

वही प्यास के अनगढ़ मोती,
वही धूप की सुर्ख कहानी,
वही आंख में घुटकर मरती,
आंसू की खुददार जवानी,
हर मोहरे की मूक विवशता, चौसर के खाने क्या जाने
हार जीत तय करती है, वे आज कौन से घर ठहरेंगे
निकल पड़े हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे

कुछ पलकों में बंद चांदनी,
कुछ होंठों में कैद तराने,
मंजिल के गुमनाम भरोसे,
सपनों के लाचार बहाने,
जिनकी जिद के आगे सूरज, मोरपंख से छाया मांगे
उन के भी दुर्दम्य इरादे, वीणा के स्वर पर ठहरेंगे
निकल पड़े हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे

—डॉ. कुमार विश्वास (Kumar Viswas)

Sunday 14 April 2013

सोच समझ कर करना पंथी यहॉं किसी से प्यार


सोच समझ कर करना पंथी यहॉं किसी से प्यार
चांदी का यह देश,यहॉं के छलिया राजकुमार
किसे यहॉ अवकाश सुने जो तेरी करूण कराहें
तुझ पर करें बयार, यहॉं सूनी हैं किसकी बाहें
बादल बन कर खोज रहा तू किसको इस मरूथल में
कौन यहॉ, व्याकुल हों जिसकी तेरे लिए निगाहें
फूलों की यह हाट लगी है, मुस्कानों का मेला
कौन खरीदेगा तेरे सूखे आंसू दो चार
सोच समझ कर करना पंथी यहॉ किसी से प्यार ।

— पदमश्री गोपाल दास नीरज

Thursday 11 April 2013

जीवन कटना था, कट गया (Jeevan Katna tha Kat Gaya)


जीवन कटना था, कट गया
अच्छा कटा, बुरा कटा
यह तुम जानो
मैं तो यह समझता हूं
कपड़ा पुराना एक फटना था, फट गया
जीवन कटना था कट गया।

रीता है क्या कुछ
बीता है क्या कुछ
यह हिसाब तुम करो
मैं तो यह कहता हूं
परदा भरम का जो हटना था, हट गया
जीवन कटना था कट गया।

क्या होगा चुकने के बाद
बूंद—बूंद रिसने के बाद
यह चिंता तुम करो
मैं तो यह कहता हूं
करजा जो मिटटी का पटना था, पट गया
जीवन कटना था कट गया।

बंधा हूं कि खुला हूं
मैला हूं कि धुला हूं
यह बिचार तुम करो
मैं तो यह सुनता हूं
घट—घट का अंतर जो घटना था, घट गया
जीवन कटना था कट गया।

— पदमश्री श्री गोपाल दास नीरज
( Padam Shri Gopal Das Neeraj )

Monday 8 April 2013

सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां


सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां
कि जिन में उनकी ही रोशनी हो कहीं से ला दो मुझे वो अंखिया

दिलों की बातें दिलों के अन्दर जरा सी जिद से दबी हुई हैं
वो सुनना चाहें जुबां से सब कुछ मैं करना चाहूं नजर से वतियां

ये इश्क क्या है, ये इश्क क्या है, ये इश्क क्या है, ये इश्क क्या है 
सुलगती सासें, तरसती आंखें, मचलतीं रूहें धड़कती छतियॉं

उन्हीं की आंखें, उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की खुशबू 
किसी भी धुन में रमाउं जियरा किसी दरश में पिरोलू अखियां

में कैसे मानूं बरसते नैनो कि तुमने देखा है पी को आते 
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूंकी कोयल, न चटकी कलियां

सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां...............

—आलोक श्रीवास्तव (Alok Shrivastav)

Sunday 7 April 2013

चॉंद और कवि


चॉंद और कवि (Chand Aur Kavi)

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चॉंद
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फॅंसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हॅू!
मैं चुका हूं देख मनु को जन्मते—मरते;
और लाखों बार तुझ—से पागलों को भी
चॉंदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। 

आदमी का स्वप्न ? है बह बुलबुला जल का,
आज उठता और कल फिर फूट जाता ;
किन्‍तु, फिर भी धन्‍य ; ठहरा आदमी ही तो ?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता हैा 

मैं न बोला, किन्‍तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चॉद मुझको जानता है तू ?
स्‍वप्‍न मेरे बुलबुले हैं हैं यही पानी ?
आग को भी क्‍या नहीं पहचानता है तू ?

मैं न वह जो स्‍वप्‍न पर केवल सही करते
आग में उसको गला लोहा बनाती है ;
और उस पर नींव रखती हूं नये घर की 
इस तरह, दीवार फौलादी उठाती हूं 

मनु नहीं, मनु पुञ है यह सामने, जिसकी
कल्‍पना की जीभ में भी धार होती है ,
बात ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्‍वप्‍न के भी हाथ में तलवार होती हैा

स्‍वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
''रोज ही आकाश चढते जा रहे हैं वे;
रोकिये, जैसे बने, इन स्‍वप्‍नबालों को,
स्‍वर्ग को ही और वढते आ रहे हैं वे'' |

-रामधारी सिंह 'दिनकर' (सामधेनी से) 
Ramdhari Singh Dinkar 

Thursday 4 April 2013

अम्मा (Amma)


अम्मा (मॉं) / Amma (Maa)

चिन्तन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नजर पर छायी अम्मा
सारे घर का शोर—शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा

सारे रिश्ते जेठ—दुपहरी, गर्म—हवा, आतिश—अंगारे
झरना दरिया झील सम्न्दर भीनी सी पुरवाई अम्मा

घर में झीने रिश्ते मेंने लाखों बार उधरते देखे
चुपके चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा

उसने खुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है
धरती, अम्बर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा

बाबूजी गुजरे आपस में सब चीजें तक्सीन हुई जब
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से आई अम्मा


—आलोक श्रीवास्तव (Alok Shrivastav)




Wednesday 3 April 2013

मन तुम्‍हारा हो गया, तो हो गया (Man Tumhara ho Gaya)


मन तुम्हारा !
हो गया
तो हो गया....
एक तुम थे
जो सदा से अर्चना के गीत थे,
एक हम थे
जो सदा से धार के विपरीत थे,
ग्राम्य—स्वर
कैसे कठिन आलाप नियमित साध पाता,
द्वार पर संकल्प के
लखकर पराजय कंपकंपाता,
क्षीण सा स्वर
खो गया तो,खो गया
मन तुम्हारा!
हो गया
तो हो गया.......

लाख नाचे
मोर सा मन लाख तन का सीप तरसे,
कौन जाने
किस घड़ी तपती धरा पर मेघ बरसे,
अनसुने चाहे रहे
तन के सजग शहरी बुलावे,
प्राण में उतरे मगर
जब सृष्टि के आदिम छलावे,
बीज बादल
बो गया तो, बो गया,
मन तुम्हारा!
हो गया
तो हो गया........

—डा0 कुमार विश्वास(Dr. Kumar Viswas)

Saturday 30 March 2013

ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही (O Kalpbrikh Ki Sonjuhi)


ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही 

ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही
ओ अमलताश की अमरकली
धरती के आतप से जलते
मन पर छाई निर्मल बदली
में तुमको मधुसदगन्ध युक्त संसार नहीं दे पाउॅंगा
तुम मुझको माफ करना तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाउॅंगा।

तुम कल्पवृक्ष का फूल और
मैं धरती का अदना गायक
तुम जीवन के उपभोग योग्य
मैं नहीं स्वयं अपने लायक
तुम नहीं अधुरी गजल शुभे
तुम शाम गान सी पावन हो
हिम शिखरों पर सहसा कौंधी
बिजुरी सी तुम मनभावन हो
इसलिये व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाउॅंगा
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाउॅंगा।

तुम जिस शयया पर शयन करो
वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो
जिस आंगन की हो मौलश्री
वह आंगन क्या वृन्दावन हो
जिन अधरों का चुम्बन पाओ
वे अधर नहीं गंगातट हों
जिसकी छाया बन साथ रहो
वह व्यक्ति नहीं वंशीवट हो
पर मैं वट जैसा सघन छॉंह विस्तार नहीं दे पाउॅंगा
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाउॅंगा।

में तुमको चॉद सितारों का
सौंपू उपहार भला कैसे
मैं यायावर बंजारा साधू
दूं सुर श्रंगार भला कैसे
मैं जीवन के प्रश्नों से नाता तोड़ तुम्हारे साथ शुभे
बारूद बिछी धरती पर कर लूं
दो पल प्यार भला कैसे
इसलिये विवश हर आंसू को सत्कार नहीं दे पाउॅंगा
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाउॅंगा।

:—डॉ0 कुमार विश्वास (Dr. Kumar Viswas)

Friday 22 March 2013

मिले हर जख्म को मुस्कान से सीना नहीं आया


मिले हर जख्म को मुस्कान से सीना नहीं आया
अमरता चाहते थे पर जहर पीना नहीं आया
तुम्हारी और मेरी दास्तां में फर्क इतना है
मुझे मरना नहीं आया तुम्हें जीना नहीं आया

वहुत विखरा बहुत टूटा थपेड़े सह नहीं पाया
हवाओं के इशारों पर मगर में बह नहीं पाया
अधूरा अनसुना ही रह गया पर प्यार का किस्सा
कभी तुम सुन नहीं पाई कभी में कह नहीं पाया

तुम्हारा ख्वाव जैसे गम को अपनाने से डरता है
हमारी आंख का आंसू खुशी पाने से डरता है
अजब है लत्फ ए गम भी जो मेरा दिल अभी कल तक
तेरे जाने से डरता था कि अब आने से डरता है

- डा0 कुमार विश्‍वास (Dr. Kumar Viswas)

ये तेरी वेरूखी की हम से आदत खाक छूटेगी


ये तेरी वेरूखी की हम से आदत खाक छूटेगी
कोई दरिया न यह समझे कि मेरी प्यास टूटेगी
तेरे वादे का तू जाने मेरा वो ही इरादा है
कि जिस दिन सांस टूटेगी उसी दिन आस छूटेगी

अभी चलता हूं रस्ते को में मंजिल मान लूं कैसे
मसीहा दिल को अपनी जिद का कातिल मान लूं कैसे
तुम्हारी याद के आदिम अंधेरे मुझ को घेरे हैं
तुम्हारे बिन जो वीते दिन उन्हें दिन मान लूं कैसे

गमों को आबरू अपनी खुशी को गम समझते हैं
जिन्हें कोई नहीं समझा उन्हें वस हम समझते हैं
कशिश जिन्दा है अपनी चाहतों में जानेजा क्योंकि
हमें तुम कम समझती हो तुम्हें हम कम समझते हैं।

-डा0 कुमार विश्‍वास (Dr. Kumar Viswas)

डा0 कुमार विश्‍वास गजल


रूह जिस्म का ठौर ठिकाना चलता रहता है
जीना मरना खोना पाना चलता रहता है

सुख दुख वाली चादर घटती वढती रहती है
मौला तेरा ताना वाना चलता रहता है

इश्क करो तो जीते जी मर जाना पड़ता है
मर कर भी लेकिन जुर्माना चलता रहता है

जिन नजरों ने काम दिलाया गजलें कहने का
आज तलक उनको नजराना चलता रहता है

-डा0 कुमार विश्‍वास (Dr. Kumar Viswas)

Saturday 16 March 2013

Rahat Indori ....


बुलाती है मगर जाने का नहीं
ये दुनिया है इधर जाने का नहीं
मेरे वेटे किसी से इश्क कर
मगर हद से गुजर जाने का नहीं
कुशादा जर्फ होना चाहिये
छलक जाने का भर जाने का नहीं
सितारे नोंच कर ले जाउंगा
में खाली हाथ घर ले जाने का नहीं
वो गर्दन नापता है
नाप ले मगर जालिम से डर जाने का नहीं



— साभार राहत इन्दौरी साहब

Rahat Indori Gajal Part 5



तेरी हरबात मौहब्ब्त में गंवारा करके
दिल के बाजार में बैठे खसारा करके

मुन्तजिर हूं कि सितारों की जरा आंख लगे
चॉद को छत पर बुला लूंगा इशारा करके

आसमानों की तरफ फेंक दिया है मेंने
चंद मिटटी के चिरागों को सितारा करके

में वो दरियां हूं कि हर वूंद भवंर है जिसकी
तुमने अच्छा ही किया मुझसे किनारा करके

— साभार राहत इन्दौरी साहब

Rahat Indori Gajal Part 4


इश्क में जीतके आने के लिये काफी हूं
में निहत्था ही जमाने के लिये काफी हू

मेरी हकीकत को मेरी खाफ समझने वाले
में तेरी नींद उड़ाने के लिये काफी हूं

मेरे बच्चों मुझे दिल खोल के तुम खर्च करो
में अकेला ही कमाने के लिये काफी हूं

एक अखवार हूं औकात ही क्या मेरी
मगर शहर में आग लगाने के लिये काफी हूं

— साभार राहत इन्दौरी साहब

Friday 15 March 2013

न वो मय न पैमाने रहे



अव न वो दिल न वो दर्द न वो दीवाने रहे
अव न वो साज न वो सुर न वो गाने रहे
साकी तू अब भी यहां किसके लिये बैठा है
अव न वो जाम न वो मय न पैमाने रहे

दुखते हुये जख्मों पे हवा कौन करे
इस हाल में जीने की दुआ कौन करे
बीमार हैं जब खुद ही हकीमानेवतन
फिर तेरे मरीजों की दवा कौन करे

नेताओं ने गांधी की कसम तक वेची
कविओं ने निराला की कलम तक वेची
मत पूछ कि इस दौर में क्या क्या न बिका
इंसानों ने आंखों की शर्म तक वेची

- पदमश्री श्री गोपाल दास नीरज 

Rahat Indori Gajal Part 3


सुनें कि नई हवाओं की सौहवत विगाड़ देती है
कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है

जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते
सजा न देके अदालत बिगाड़ देती है

मिलाना चाहा है इंसा को जो भी इंसा से
तो सारे काम सियासत विगाड़ देती है

हमारे पीर तकीमीर ने कहा था कभी
मियां ये आशिकी इज्जत विगाड़ देती है

सियासत में जरूरी है रवादारी समझता है
वो रोजा तो नहीं रखता पर इफतारी समझता है।

— साभार राहत इन्दौरी साहब

Rahat Indori Gajal Part 2


कश्ती तेरा नसीब चमकदार कर दिया
इस पार के थपेड़ों ने उस पार कर दिया

अफवाह थी कि मेरी तबीयत खराब है
लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया

दो गज सही मगर ये मेरी मिल्कियत तो है
ऐ मौत तूने मुझ को जमींदार कर दिया

— साभार राहत इन्दौरी साहब ( Rahat Indori )

Rahat Indori Gajal 1


मेरे हुजरे में नहीं और कहीं पर रख दो
आसमां लाये हो ले आये जमीं पर रख दो

अब कहां ढूंढने जाओगे हमारे कातिल
आप तो कत्ल का इल्जाम हमीं पर रख दो

उसने जिस ताक पे कुछ टूटे दीये रक्खे हैं
चॉद तारों को भी ले जाकर वहीं पर रक्ख दो

— साभार राहत इन्दौरी जी (Rahat Indori)

Tuesday 12 March 2013

प्रिय तुम्हारी सुधि को मेंने (Priya Tumhari sudhi ko maine)


प्रिय तुम्हारी सुधि को मेंने यूं भी अक्सर झूम लिया
तुम पर गीत लिखा फिर उसका अक्षर अक्षर चूम लिया

में क्या जानूं मन्दिर मस्जिद गिरजा या गुरूद्वारा
जिन पर पहली बार लिखा था अल्हण रूप तुम्हारा
मेंने उन पावन राहों का पत्थर पत्थर चूम लिया
प्रिय तुम्हारी सुधि को मेंने यूं भी अक्सर झूम लिया........तुम पर गीत

हम तुम कितनी दूर धरा से नभ की जितनी दूरी
फिर भी हमने साथ मिलन की पल में कर ली पुरी
मेंने धरती को दुलराया तुमने अम्बर चूम लिया
प्रिय तुम्हारी सुधि को मेंने यूं भी अक्सर झूम लिया..........तुम पर गीत

प्रियतम सुधि की गंध तुम्हारी मेंने चूमी ऐसे
चरण अहिल्या ने रघुवर के चूम लिये थे जैसे
जैसे लकडी की मुरली ने मोहन का स्वर चूम लिया
प्रिय तुम्हारी सुधि को मेंने यूं भी अक्सर झूम लिया........तुम पर गीत

— श्री देवल आशीष श्रंगार रस कवि (Deval Ashish)





गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है (Gangajal Sa Nirmal Man hai )


रीत भले है अलग हमारी पर पूजन तो पूजन है
भाव सुमन है गीत भजन है स्वर क्या है अभिनन्दन है
ध्यान बसा वो रूप कि जिसकी छवि तीरथ सी पावन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है

रूप कि जिसके आगे वुझकर धूप चॉंदनी होती
हंसदे तो हीरे शरमायें मुस्काये तो मोती
चाल चले तो चरण चूम लें नदिया देख रवानी
बहता पानी पानी पानी होकर मांगे पानी
कंचन काया को छू ले तो और महकता चंदन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले

अलंकार सब रीझे जिस पर उपमायें सब हारी
देख जिसे जयदेव मगन हों वेवस तकें बिहारी
बहके जिसकी एक झलक में अनगिन आंखें प्यासी
जिसके दर्शन पा जायें तो तप छोडें सन्यासी
जिसकी सुधियों में आर्कषण सपनों में सम्मोहन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले

अंग अंग शुभ अंकित जैसे मानस की चौपाई
चिंतन में विस्तार गगन सा गीता सी गहराई
सूरत सुखद नयन में निश्छल नेह करे अगवानी
अमृत पीके अधर उचारे वेद मन्त्र सी बानी
क्या मन्दिर में होगा जैसा अन्तर में आराधन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले

निराकार होकर भी अपने अ​नगिन रूप दिखाये
किन्तु उसे ये आंखों वाली दुनिया देख न पाये
देखे जो दिलवाला कोई तजकर कण्ठी माला
रचना में साकार मिलेगा दुनिया रचने वाला
क्या पत्थर में खोजें उसको जिसकी रचना जीवन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले

— श्रंगार रस कवि देवल आशीष (Deval Ashish)

Thursday 7 March 2013

तुझे नजर न लगे (Tujhe Najar Na lage)


मुददतों खुद की कुछ खबर न लगे,
कोई अच्छा भी इस कदर न लगे
बस तुझे उस नजर से देखा है,
जिस नजर से तुझे नजर न लगे

में जिसे दिल से प्यार करता हूं,
चाहता हूं उसे खबर न लगे
वो मेरा दोस्त भी है दुश्मन भी,
वददुआ दूं उसे पर न लगे

ये सोचना गलत है कि तुम पर नजर नहीं,
मशरूफ हम वहुत हैं मगर वेखबर नहीं
और अव तो खुद अपने खून ने भी साफ कह दिया
में आप का रहुंगा मगर उम्र भर नहीं

- श्री आलोक श्रीवास्‍तव (Alok Srivastav)

सासें भीग जाती हैं (Sansain Bheeg Jati hain)


तुम्हारे पास आता हूं तो सासें भीग जाती हैं,
मुहब्‍बत इतनी मिलती है कि आंखें भीग जाती हैं।

तबस्सुम इत्र जैसा है हंसी बरसात जैसा है,
वो जब भी बात करता है तो वातें भीग जाती हैं।

तुम्हारी याद से दिल में उजाला होने लगता है,
तुम्हें जब गुनगुनाता हूं तो रातें भीग जाती हैं।

जमी की गोद भरती है तो कुदरत भी चहकती है,
नये पत्ते की आहट से ही शाखें भीग जाती हैं।

तेरे एहसास की खुशबू हमेशा ताजा रहती है,
तेरी रहमत की वारिश से मुरादें भीग जाती हैं।

-श्री आलोक श्रीवास्‍तव (Alok Srivastav)

जो हममें तुममें हुई मुहब्बत (Jo Hammain Tummain hui Mohabbat)


जो हममें तुममें हुई मुहब्बत
तो देखो कैसा हुया उजाला
वो खुशबूओं ने चमन संभाला
वो मस्जिदों में खिला तब्स्सुम
वो मुस्कराया है फिर शिवालाय
जो हममें तुममें हुई मुहब्बत................

जो हममें तुममें हुई मुहब्बत
तो लव गुलाबों के फिर से महके
नगर शबाबों के फिर से महके
किसी ने रक्खा है फूल फिर से
वरख्त किताबों के फिर से महके
जो हममें तुममें हुई मुहब्बत.....................

मुहब्बतों की दुकां नहीं है
वतन नहीं है मकां नहीं है
कदम का मीलों निशां नहीं है
मगर बता ये कहां नहीं हैं

कहीं पर गीता कुरान है ये
कहीं पर पूजा अजान है ये
सदाकतों की जुबान है ये
खुला खुला आसमान है ये

तरक्कियों का सामाज जागा
कि बालियों में अनाज जागा
कबुल होने लगी हैं मन्नत
धरा को तकने लगी है जन्नत
जो हममें तुममें हुई मुहब्बत................

-आलोक श्रीवास्तव (Alok Srivastav)

Wednesday 6 March 2013

नेता (Neta)....आज की राजनीती


सच का सफर अधरों पे दम तोड़ता है झूठ की नजर डोलती है आसमान में
यार इस सीजन में कितना उड़ाया माल एक नेता पूछता है दूसरे से कान में
कुछ ने किया है खेल, खेल में ही रेल पेल सैटिंग बिठाई कईयों ने फोनफान में
कुछ थो आदर्श हुये सागर किनारे जाके और बाकी कूद गये कोयला खदान में

कुछ अधरों की प्यास इतनी वढी कि वस सारी मधुशाला को प्याला कर लिया है
और कुछ भूख इतनी हुयी है विकराल पूरे संविधान को निवाला कर लिया है
माल देश का उड़ा के खुश है दलाल और अपनी ही खाल को दुशाला कर लिया है
मुंह चूंकि देश को दिखाने लायक नहीं था इसलिये कोयले से काला कर लिया है।

भोर की सुनहरी डालियों पे बैठे पंक्षियों को भूख के डरावने ख्यालों से बचाईये
खुद को तलाश करते जवान लम्हों की शाम को लरजते प्यालों से बचाईये
कि कैसे कहॉ कौनसी मुसीबत उठाये सर आम आदमी को इन ख्यालों से बचाईये
और सारी मुश्किलों के निकलने लगेंगे हल पहले इस देश को दलालों से बचाईये

लोकतन्त्र की विडम्बना है और कुछ नहीं जाने किस किस को सलाम सोंप दिया है
आज तक ठीक से समझ में यह आया नहीं जाने किस बात का इनाम सोंप दिया है
जो हैं तानाशाही वाली सोच के गुलाम उन्हें आज सारे हिन्द का निजाम सोंप दिया है
जिन्हें बैठना था पान की दुकान पर उन्हें देश का चलाने वाले काम सोंप दिया है

नित नये बादे नये दाबे में इरादे नये पल में बदलते वयान छोड दीजिये
वस में नहीं जो काम उसका वखान फिर उस पे लड़ानी ये जुबान छोड दीजिये
कि आपने परिस्थितियॉ जो पैदा कर दी हैं मॉग करता है संविधान छोड दीजिये
तुमसे न होगा कुछ मानो मनमौन जी हो सके तो देश की कमान छोड दीजिये

दशरथ को (Dashrath ko)


A True condition of Metro Cities...............

राम इस दौर का वुढापे का सहारा बनें, रहती है बस यही आश दशरथ को
और तृष्णा की मंथरा दरार डाल दे न कहीं, सालता है यही एकसास दशरथ को
लाडलों ने जाने कैसा फरमान रख दिया, आज फिर देखा है उदास दशरथ को
राम को मिला था बनवास युग बीत गये, रोज मिलता है बनवास दशरथ को

- कवि चरन (Kavi Charan)

माँ (Maa)


हौले हौले ख्वाहिशों की उम्र वढने लगी तो, दिल में जवान कितने ही ख्वाव हो गये
और वक्त की शिकायतों पर रब की इनायतें थी, हमने जो देखे सपने गुलाब हो गये
कि दुनिया ने रख दिये पग पग पे सवाल, फिर भी इरादे सभी लाजबाब हो गये
जिन्दगी में और तो वसीला कुछ भी नहीं था, मॉ ने दी दुआयें हम कामयाब हो गये !

खूबसूरती किसी इमारत के गमलों की, जैस और भी निखरती है कांट छांट से
हम से यह बार बार बोलते हैं संस्कार, प्यार फैलता है अपनों में वरवांट से
हौले हौले घूंट घूंट दिल में उतरती है, जल की सुगंध जैसे मिटटी वाले मॉट से
हमने सही है इसलिये हम जानते हैं, जिन्दगी संवरती वुजुर्गों की डांट से !

देश के दुलारे जिस रास्ते से गुजरे हों ऐसी पगडण्डी ऐसा ठौर छू के चलिये
फल फूलते हों जहां प्रेम और संस्कार सपनों का ऐसा कोई गॉव छू के चलिये
जिन्दगी जिन्होंने लिख दी है पथिकों के नाम राह के दरख्तों की छांव छू के चलिये
और पुण्य चारधाम का बनेगा हर एक काम घर से चलो तो मॉ के पांव छू के चलिये ! 


- कवि चरन (Kavi Charan)


Monday 4 March 2013

बस मुझ पर एहसान तुम्‍हारा हो जाये (Bas Mugh par aihsaan tumhara ho jaye)

कि तुम सुमनों की कोमलता, कि तुम हिरनी की चंचलता
कि तुम कलियों की तरूणाई, कि तुम तुलसी की चौपाई -- २

कि प्रिय मेरा तन मन ध्‍यान तुम्‍हारा हो जाये, मेरा तन मन ध्‍यान तुम्‍हारा हो जाये
बस मुझ पर एहसान तुम्‍हारा हो जाये --- कि तुम सुमनों की कोमलता

नयन तुम्‍हारे नयन नहीं है नेह निमन्‍ञण है,
अधर नहीं सौन्‍दर्य सुधा का सहज समपर्ण है
जाने किस के कुशल करों ने तुम्‍हें तराशा है
रूप तुम्‍हारा कोहिनूर है देह वताशा है

तभी तो वो चन्‍द्र किरन अलवेली भटको मत निपट अकेली
जग की अदभुत है लीला हर पंथ वडा पथरीला
फिर भी जीवन पथ आसाना तुम्‍हारा हो जाये
बस मुझ पर एहसान तुम्‍हारा हो जाये --- कि तुम सुमनों की कोमलता

गौर छंटा के श्‍याम घटा के द़श्‍य मनोहर हैं,
चपल चंचला तुम पर मेरे प्राण न्‍यौछावर हैं
तुम्‍हें भला क्‍या दूं जब सब कुछ स्‍वंय तुम्‍हारा हो
तुम्‍हीं प्‍यास हो तुम्‍हीं त़़प्‍ति हो तुम जलधारा हो
सुनो तो फिर वेमन की इच्‍छायें, चिर ग्‍वारीय अभिलाषायें
सब सुख दुख दर्द पुराने रेशम से सपन सुहाने
मेरा ये सारा संसार तुम्‍हारा हो जाये
बस मुझ पर एहसान तुम्‍हारा हो जाये --- कि तुम सुमनों की कोमलता

--श्री श्रंगार रस कवि भाई देवल आशीष (Deval Ashish)


में भाव सूची उन भावों की (Main Bhav Soochi un Bhavo ki)

में भाव सूची उन भावों की, जो बिके सदा ही बिन तोले
तन्‍हाई हूं हर उस खत की, जो पढा गया है बिन खोले
हर आंसू को हर पत्‍थर तक पहुंचाने की लाचार हूक,
में सहज अर्थ उन शब्‍दों का जो सुने गये हैं बिन बोले
जो कभी नहीं बरसा खुलकर हर उस बादल का पानी हूं
लव कुश की पीर बिना गाई सीता की रामकहानी हूं

जिनके सपनों के ताजमहल, बनने से पहले टूट गये
जिन हाथों में दो हाथ कभी आने से पहले छूट गये
धरती पर जिनके खोने और पाने की अजब कहानी है
किस्‍मत की देवी मान गयी पर प्रणय देवता रूठ गये
में मैली चादर वाले उस कबिरा की अम़तवाणी हूं
लव कुश की पीर बिना गाई सीता की रामकहानी हूं

कुछ कहते हैं में सीखा हूं अपने जख्‍मों को खुद सींकर
कुछ जान गये में हंसता हूं भीतर भीतर आंसू पीकर
कुछ कहते हैं में हूं बिरोध से उपजी एक खुददार विजय
कुछ कहते में रचता हूं खुद में मरकर खुद में जीकर
लेकिन हर चतुराई की सोची समझी नादानी हूं
लव कुश की पीर बिना गाई सीता की रामकहानी हूं

में भाव सूची उन भावों की, जो बिके सदा ही बिन तोले -----------

- श्री कुमार विश्‍वास (Dr. Kuamr Viswas)


Sunday 3 March 2013

जीवन नहीं मरा करता है (Jeevan nahi mara karta hai)


छिप छिप अश्रु बहाने बालो,
मोती व्यर्थ लुटाने वालो
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुया आंख का पानी
और टूटना है उसको ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने बालो, डूबे बिना नहाने बालो
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है।

माला विखर गई तो क्या है,
खुद ही हल हो गयी समस्या
आंसू गर नीलाम हुये तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालो, फटी कमीज सिलाने वाले
कुछ दीपक के वुझ जाने से आंगन नहीं मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहॉ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चॉदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वाले, चाल बदलकर जाने वालो
चंद खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरिया फूटीं
शिकन न आयी पर पन्घट पर
लाखों वार किश्तियॉ डूबीं
चहल पहल वो ही है घट पर
तम की उमर वढाने वालो लौ की उमर घटाने वालो
लाख करे पतझड़ कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन
लूटी न लेकिन गन्ध फूल की
तूफानों तक ने छेड़ा पर
खिड़की बन्द न हुई धूल की
नफरत गले लगाने वालों सब पर धूल उड़ाने वालो
कुछ मुखड़ों की नाराजी से दर्पण नहीं मरा करता है।

—श्री गोपाल दास नीरज  (Shri Gopal Das Neeraj)

Friday 1 March 2013

मॉग की सिन्दूर रेखा (Mang Ki Sindoor Rekha)


मॉग की सिन्दूर रेखा तुमसे ये पूछेगी कल,
यूं मुझे सर पर सजाने का तुम्हें अधिकार क्या है।
तुम कहोगी वो समर्पण बचपना था तो कहेगी,
गर वो सब कुछ बचपना था तो कहो फिर प्यार क्या है। — 2

कल कोई अल्हड़ अयाना बाबरा झोंका पवन का,
जब तुम्हारे इंगितों पर गन्ध भर देगा चमन में
या कोई चंदा धरा का रूप का मारा वेचारा,
कल्पना के तार से नक्षत्र जड देगा गगन पर
तब यही विछुये, महावर, चुडियां, गजरे कहेंगे,
इस अमर सौभाग्य के श्रंगार का अधिकार क्या है।
मॉग की सिन्दूर रेखा तुमसे ये पूछेगी कल,
यूं मुझे सर पर सजाने का तुम्हें अधिकार क्या है।
तुम कहोगी वो समर्पण बचपना था तो कहेगी,
गर वो सब कुछ बचपना था तो कहो फिर प्यार क्या है।

कल कोई दिनकर विजय का सेहरा सर पर सजाये,
जब तुम्हारी सप्तवर्णी छांव में सोने चलेगा
या कोई हारा थका व्याकुल सिपाही तुम्हारे,
वक्ष पर धर सीस हिचकियां रोने लगेगा
तब किसी तन पर कसीं दो बांह जुड कर पूछ लेंगी,
इस प्रणय जीवन समर में जीत क्या है हार क्या है।
मॉग की सिन्दूर रेखा तुमसे ये पूछेगी कल,
यूं मुझे सर पर सजाने का तुम्हें अधिकार क्या है।
तुम कहोगी वो समर्पण बचपना था तो कहेगी,
गर वो सब कुछ बचपना था तो कहो फिर प्यार क्या है।

— डा0 कुमार विश्वास (Dr. Kumar Vishwas)

Wednesday 27 February 2013

बस मुझ पर एहसान तुम्हारा हो जाये (Bas Mugh Par Ahsaan Tumhara ho jaye)


कि तुम सुमनों की कोमलता, कि तुम हिरनी की चंचलता
कि तुम कलियों की तरूणाईत्, तुम तुलसी की चौपाई
कि प्रिय मेरा तन मन ध्यान तुम्हारा हो जाये—2
बस मुझ पर एहसान तुम्हारा हो जाये, कि तुम सुमनों की कोमलता .........

नयन तुम्हारे नयन नहीं है नेह निम्ंत्रण हैं,
अधर नहीं सौन्दर्य सुधा का सहज समर्पण हैं
जाने किस के कुशल करों के तुम्हें तराशा है,
रूप तुम्हारा कोहिनूर है देह बताशा है
तभी तो वो चन्द्रकिरण अलबेली, भटको मत निपट अकेली
जग की अदभुत है लीला, हर पंथ बड़ा पथरीला
फिर भी जीवन पथ आसान तुम्हारा हो जाये
बस मुझ पर एहसान तुम्हारा हो जाये, कि तुम सुमनों की कोमलता .........

गौर छंटा के श्याम घटा के दृश्य मनोहर है,
चपल चंचला तुम पर मेरे प्राण न्यौछावर हैं
तुम्हें भला क्या दूं जब सब कुछ स्वयं तुम्हारा हो,
तुम्हीं प्यास हो तुम्हीं तृप्ति हो तुम जलधारा हो
सुनो तो फिर वेमन की इन्छायें, चिर ग्वारीय अभिलाषायें
सब सुख दुख दर्द पुराने, रेशम से सपन सुहाने
कि मेरा यह सारा अभिमान तुम्हारा हो जाये
बस मुझ पर एहसान तुम्हारा हो जाये, कि तुम सुमनों की कोमलता .........

—श्रंगार रस कवि श्री देवल आशीष (Deval Ashish)

Monday 25 February 2013

मुक्तक भाग 2 (Muktak Part 2)



बतायें क्या हमें किन किन सहारों ने सताया है,
नदी तो कुछ नहीं बोली किनारों ने सताया हैे
सला से शूल मेरी राह से खुद हट गये लेकिन,
मुझे तो हर घड़ी हर पल बहारों ने सताया है।

किसी के दिल की मायूसी जहॉ से होके गुजरी है,
हमारी सारी चालाकी वहीं पे खो के गुजरी है
तुम्हारी और हमारी रात में वस फर्क इतना है,
तुम्हारी सो के गुजरी है हमारी रो के गुजरी है

अगर दिल ही मुअज्जन हो सदायें काम आती हैं,
समन्दर में सभी माफिक हवायें काम आती हैं
मुझे आराम है ये दोस्तों की मेहरवानी है,
दुआयें साथ हों तो सब दवायें काम आतीं है।

तुम्हीं पे मरता है ये दिल अदावत क्यों नहीं करता,
कई जन्मों से बंदी है वगावत क्यों नहीं करता
कभी तुमसे थी जो वो ही शिकायत है जमाने से,
मेरी तारीफ करता है मुहब्बत क्यों नही करता

—डा0 कुमार विश्वास (Dr. Kumar Vishwas)

मुक्तक भाग 1 (Muktak Part 1)


पुकारे आंख में चढ कर दुखों को खूं समझता है,
अंधेरा किस को कहते हैं यह वस जुगनूं समझता है
हमें तो चॉद तारों में भी तेरा रूप दिखता है,
मुहम्मत में नुमाइश को अदायें तू समझता है।

मेरा प्रतिमान आंसू में भिगो कर गढ लिया होता
अंकिचन पांव तब आगे तुम्हारा वढ लिया होता
मेरी आंखों में भी अंकित समर्पण की रिचायें थी
उन्हें कुछ अर्थ मिल जाता जो तुमने पढ लिया होता

जहॉ हर दिन सिसकना है जहॉ हर रात गाना है
हमारी जिन्दगी भी एक तफायफ का घराना है
बहुत मजबूर होकर गीत रोटी के लिखे मेंने
तुम्हारी याद का क्या है उसे तो रोज आना है।

कहीं पर जग लिये तुम बिन,कहीं पर सो लिये तुम बिन,
भरी महफिल में भी अक्सर अकेले हो लिये तुम बिन
ये पिछले चन्द बर्षो की कमाई साथ है मेरे,
कभी तो हंस लिये तुम बिन कभी फिर रो लिये तुम बिन

-डा0 कुमार विश्वास (Dr. Kumar Vishwas)

कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है(Koi deewana kahta hai koi pagal samghta hai)


कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है,
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है
में तुझसे दूर कैसा हूं तू मुझसे दूर कैसी है,
ये मेरा दिल समझता है या तेरा दिल समझता है


मुहब्ब्त एक एहसासों की पावन सी कहानी है,
कभी कबीरा दिवाना ​था कभी मीरा दीवानी है
यहॉ सब लोग कहते हैं मेरी आंखों में आंसू है,
जो तू समझे तो मोती है जो ना समझे तो पानी है


बदलने को तो इन आंखों के मंजर कम नहीं बदले,
तुम्हारी याद के मौसम हमारे गम नहीं बदले
तुम अगले जन्म में हमसे मिलोगी तब तो मानोगी,
जमाने और सदी की इस बदल में हम नहीं बदले


बस्ती बस्ती घोर उदासी पर्वत पर्वत खालीपन,
मन हीरा बेमोल लुट गया रोता घिस घिस री तातन चन्दन
इस धरती से उस अम्बर तक दो ही चीज गजब की हैं,
एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन

-डा0 कुमार विश्वास(Dr. Kumar Vishwas)



में भी हूं और तू भी है (Main Bhi hoon aur tu bhi hai)


इस उ्ड़ान पर अब शर्मिन्दा में भी हूं और तू भी है,
आसमान से गिरा परिन्दा में भी हूं और तू भी है
छूट गयी रास्ते में जीने मरने की सारी कस्में,
अपने अपने हाल में जिन्दा में भी हूं और तू भी है
खुशहाली में एक बदहाली में भी हूं और तू भी है,
हर निगाह पर एक सवाली में भी हूं और तू भी है
दुनिया कुछ भी अर्थ लगाये हम दोंनों को मालूम है,
भरे भरे पर खाली खाली में भी हूं और तू भी है

-डा0 कुमार विश्वास (Dr. Kumar Vishwas)

में तुम्हें ढूंढने स्वर्ग के द्वार तक (Main Tumhain Dhudne swarg ke dwar tak)


में तुम्हें ढूंढने स्वर्ग के द्वार तकरोज आता रहा रोज जाता रहा,
तुम गजल बन गयीं गीत में ढल गयी मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा

जिन्दगी के सभी रास्ते एक थे सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक रही,
अप्रकाशित रह पीर के उपनिषद मन की गोपन कथायें नयन तक रहीं,
प्राण के पृष्ठ पर प्रीत की अल्पना तुम मिटाती रही में बनाता रहा
में तुम्हें ढूंढने स्वर्ग के द्वार तकरोज आता रहा रोज जाता रहा..........

एक खामोश हलचल बनीं जिन्दगी गहरा ठहरा हुया जल बनी जिन्दगी,
तुम बिना जैसे महलों में बीता हुया उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी,
दृष्टि आकाश में आश का दिया तुम बुझाती रहीं में जलाता रहा
में तुम्हें ढूंढने स्वर्ग के द्वार तकरोज आता रहा रोज जाता रहा.........

तुम चली तो गई मन अकेला हुया सारी सुध्यिों का पुरजोर मेला हुया,
जब भी लौटी नई खुशबुयों में सजी मन भी बेला हुया तन भी बेला हुया
व्यर्थ की बात पर खुद के आघात पर रूठती तुम रहीं में मनाता रहा
में तुम्हें ढूंढने स्वर्ग के द्वार तकरोज आता रहा रोज जाता रहा.........

तुम गजल बन गयीं गीत में ढल गयी मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा...

-डा0 कुमार विश्वास (Dr. Kumar Vishwas)

Saturday 2 February 2013

राधा कृष्ण कविता (Radha Krishn Kavita by Bhai Deval Ashish)


कि विश्व को मोहमयी महिमा के असंख्य स्वरूप दिखा गया कान्हां,
सारथी तो कभी प्रेमी बना तो गुरू धर्म निभा गया कान्हां
रूप विराट धरा तो धरा तो धराहर लोक पे छा गया कान्हां
रूप किया इतना लघु तो यशोदा की गोद में आ गया कान्हां
चोरी छुपे चढ़ बैठा अटारी पे चोरी से माखन खा गया कान्हां
गोपियों के कभी चीर चुराये कभी मटकी चटका गया कान्हां
खाग था घोर बड़ा चितचोर कि चोरी में नाम कमा गया कान्हां
मीरा की रैन की नैन की नींद कि राधा का चैन चुरा गया कान्हां
कि राधा ने त्याग का पंथ बुहारा तो पंथ पर फूल विछा गया कान्हां
राधा ने प्रेम की आन निभायी तो आन का मान वढ़ा गया कान्हां
कान्हां के तेज को भा गयी राधा तो राधा के रूप को भा गया कान्हां
कान्हां को कान्हां बना गयी राधा तो राधा को राधा बना गया कान्हां

कान्हां को कान्हां बना गयी राधा तो ......... राधा को राधा बना गया कान्हां

गोपियॉ गोकुल में ​थी अनेक परन्तु गोपाल को भा गयी राधा
बॉध के पाश में नाग नथैया को काम विजेता बना गयी राधा
कि काम विजेता को प्रेम प्रणेता को प्रेम पीयूष पिला गयी राधा
विश्व को नाच नचाता है जो उस श्याम को नाच नचा गयी राधा
त्यागियों में अनुरागियों में बड़भागी की नाम लिखा गयी राधा
रंग में कान्हां के ऐसी रंगी रंग कान्हां के रंग नहा गयी राधा
प्रेम है भक्ति से बढ़कर ये बात सभी को सिखा गयी राधा
संत महंत तो ध्याया किये और माखनचोर को पा गयी राधा
ब्याही ना श्याम के संग न द्वारिका या मथुरा मिथला गयी राधा
पायी न रूकमणी साधन बैभव सम्पदा को ठुकरा गयी राधा
किन्तु उपाधि और मान गोपाल की रानियों से वढ़ पा गयी राधा
ज्ञानी बड़ी अभिमानी बड़ी पटरानी को पानी पिला गयी राधा
हार के श्याम को जीत गयी अनुराग का अर्थ् बता गयी राधा
पीर पे पीर सहीं पर प्यार को शाश्वत कीर्ति दिला गयी राधा
कान्हां को पा सकती ​थी प्रिया पर प्रीत की रीत निभा गयी राधा
कृष्ण ने लाख कहा पर संग में ना गयी तो फिर ना गयी राधा

कृष्ण ने लाख कहा पर संग में ना गयी......तो फिर ना गयी राधा .......

— भाई श्री देवल आशीष (Deval Ashish)

Sunday 27 January 2013

हार गया तन मन पुकार कर तुम्हें


हार गया तन मन पुकार कर तुम्हें,
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें...........हार गया तन मन रे हार गया रे

जिस पल हल्दी लेपी होगी तन पर मॉ ने,
जिस पल सखियों ने सौंपी होंगी सौगातें
ढोलकी की थापो में घुघरूं की रूनझुन में,
घुलकर फैली होंगी घर में प्यारी बातें
उस पल मीठी सी धुन, सूने कमरे में सुन
रोये मन चौसर पर हार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें...........हार गया तन मन रे हार गया रे

कल तक जो हमको तुमको मिलबा देती थी
उन सखियों के प्रश्नों ने टोका तो होगा
साजन की अंजुरि पर अंजुरि कापीं होगी
मेरी सुधियों ने रस्ता रोका तो होगा
उस पल सोचा मन में आगे अब जीवन में
जी लेंगे हंस कर विसार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें...........हार गया तन मन रे हार गया रे

कल तक जिन गीतों को तुम अपना कहती थीं
अखबारों में पढ़ कर कैसा लगता होगा
सावन की रातों में साजन की बाहों में
तन तो सोता होगा पर मन जगता होगा
उस पल के जीन में आंसू पी लेने में
मरते हैं मन ही मन मार कर तुम्हें
कितने एकाकी हैं प्यार कर तुम्हें...........हार गया तन मन रे हार गया रे

—डॉ0 कुमार विश्वास (Dr. Kumar Viswash)

Friday 25 January 2013

एक बार जीवन में प्यार कर लो प्रिये..


लगती हो रात में प्रभात की किरन सी
किरन से कोमल कपास की छुवन सी
छुवन सी लगती हो किसी लोकगीत की
लोकगीत जिस में बसी हो गन्ध प्रीत की
तो प्रीत को नमन एक बार कर लो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार कर लो प्रिये.................

प्यार ठुकरा के मत भटको विकल सी
विकल हृदय में मचा दो हलचल सी
हलचल प्रीत की मचा दो एक पल को
एक पल में ही खिल जाओगी कमल ​सी
प्यार के सलोने पंख बॉध लो सपन में
सपन को सजने दो चंचल नयन में
नयन झुका के अपना लो किसी नाम को
किसी प्रिय नाम को बसा लो तन मन में
तो मन पे किसी के अधिकार कर लो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार कर लो प्रिये .................

प्यार है पवित्रपुंज प्यार पुन्यधाम है
पुण्यधाम जिसमें कि राधिका है श्याम है
श्याम की मुरलिया ही हर गूंज प्यार है
प्यार कर्म, प्यार धर्म, प्यार प्रभु नाम है
प्यार एक प्यास, प्यार अमृत का ताल है
ताल में नहाये हुये चन्द्रमा की चाल है
चाल बन्नवारियों हिरनियों की प्यार है
प्यार देव मन्दिर की आरती का थाल है
तो थाल आरती का है विचार कर लो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार कर लो प्रिये .................

प्यार की शरण जाओगी तो तर जाओगी
जाओगी नहीं तो आयु भर पक्षताओगी
पक्षताओगी जो किया आप मान रूप का
रंग रूप यौवन दुबारा नहीं पाओगी।
युगों की जानी अन्जानी पल भर की
अन्जानी जग की कहानी पल भर की
वस पल भर की कहानी इस रूप की
रूप पल भर का जवानी पल भर की
तो अपनी जवानी का श्रंगार कर लो प्रिये

एक बार जीवन में प्यार कर लो प्रिये ................


— श्री देवल आशिष श्रंगार कवि

पूनम के चन्द्रमा की भांति मुख पर चमक


पूनम के चन्द्रमा की भांति मुख पर चमक,
ज्योतसना भी गोरा रंग देख के लजाई है।
सावन के मेघों के समान काली केश राशि,
आंखों में अपार सिन्धु सम गहराई है।
कमल से कोमल गुलाबी अधरों के वीच,
चुपके से मृदु मुस्कान इठलाई है।
बन के उड़े चकोर मन मोर उसी ओर,
चित चोर जब से वह उर में समाई है।

—श्री देवल आशीष जी, कवि श्रंगार

Tuesday 22 January 2013

अल्हड़ अबोध आयु पाकर दिवाकर सा, रूप काम तन रत नारी लगने लगी


अल्हड़ अबोध आयु पाकर दिवाकर सा, रूप काम तन रत नारी लगने लगी

वॉकुरी की धार सम तीखे नयनों की कोर, आंज कर काजर कटारी लगने लगी

देख कर कंचन समान कमनीय काया, काम को भी कामना कुमारी लगने लगी

यौवन का वोझ इतना वढ़ा कि देह पर, ओढ़नी भी रेशम की भारी लगने लगी


मुखड़ा है जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा की छवि, देहदृष्टि जैसे पारिजात है कसम से

चंचल हंसी में मीठी तान की सी कोयल की, बानी में सुरों की बरसात है कसम से

घोर कालिमा से काले काले—काले कुन्तल हैं, काले केश हैं कि काली रात है कसम से

गोरे रंग से भी गोरी गोरी—गोरी इतनी की, तुलना में गोरा रंग मात है कसम से


झूमर बजी झनननन् कंगन बजे खननन् किनन् किनन् मोतियों के हार बजने लगे

कोमल चरण जो चले तो गन्ध चूम चूम झूमते कनेर कचनार बजने लगे

प्रेती पातकों की चेतना में घन्टियों के स्वर, रूपसी का देश के श्रंगार बजने लगे

नूपुर उधर बार—बार बजने लगे, तो इधर दिलों के तार—तार बजने लगे — 2


— श्रंगार रस कवि श्री देवल आशीष

कि प्यार के बिना भी उम्र काट लेंगे आप किन्तु


कि प्यार के बिना भी उम्र काट लेंगे आप किन्तु
कहीं तो अधूरी जिन्दगानी रह जायेगी
यानी रह जायेगी न मन में तरंग
नाहीं देह पर नेह की निशानी रह जायेगी
रह जायेगी तो वस नाम की नहीं तो ​फिर
और किस काम की जवानी रह जायेगी
रंग जो ना ढंग से उमंग के चढेंगे तो
कबीर सी चन्दरिया पुरानी रह जायेगी

— कवि देवल आशीष

हमने तो बाजी प्यार की हारी ही नहीं है


हमने तो बाजी प्यार की हारी ही नहीं है
जो चॅूंके निशाना वो शिकारी ही नहीं है
कमरे में इसे तू ही बता कैसे सजायें
तस्वीर तेरी दिल से उतारी ही नहीं है।

— कवि देवल आशीष

उलझ के ऐसे मुहब्बत का फलसफा रह जाये



उलझ के ऐसे मुहब्बत का फलसफा रह जाये,
ना कुछ भी ख्वावो हकीकत में फॉसला रह जाये
वहॉ से देखा है तुझको जहॉ से तू खुद भी
जो अपने आपको देखे तो देखता रह जाये।

— कवि देवल आशीष