Wednesday 22 May 2013

तुमको चाहा और कुछ सोचा नहीं


हमने दुनिया की तरफ देखा नहीं
तुमको चाहा और कुछ सोचा नहीं

दिल कि जैसे पाक मरियम की दुआ
उसके चेहरे पर कोई चहरा नहीं

ख्वाव तो कब के तुम्हारे हो चुके है
एक दिल था वो भी अब मेरा नहीं

तुमने आखिर सुबह से क्या कह दिया
आज सूरज शर्म से निकला नहीं

- श्री आलोक श्रीवास्‍तव (Alok Shrivastv)

असर बुजर्गो की नैमतों का हमारे अन्दर से झॉंकता है


असर बुजर्गो की नैमतों का हमारे अन्दर से झॉंकता है
पुरानी नदिया का मीठा पानी नये समन्दर से झॉंकता है

ना जिस्म कोई, न दिल, न आंखें मगर ये जादूगरी तो देखो
हरेक शह में धड़क रहा है हरेक मंजर से झॉंकता है

लवों पे खामोशियों का पहरा, नजर परेशां, उदास चेहरा
तुम्हारे दिल का हरेक जज्बा तुम्हारे तेवर से झॉंकता है

गले में मॉं ने पहन रक्खे हैं महीन धागे में चन्द मोती
हमारी गर्दिश का हर एक सितारा उस एक जेवर से झॉकता है

थके पिता का उदास चेहरा उभर रहा है यूं मेरे दिल में
कि प्यासे वादल का अक्स जैसे किसी सरोवर से झॉकता है

चहक रहे चमन में पंक्षी दरख्त अंगड़ाई ले रहे है
बदल रहा है दुखों का मौसम बसन्त पतझड़ से झॉंकता है

-श्री आलोक श्रीवास्‍तव (Sh. Alok Shrivastav)

Tuesday 14 May 2013

जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है


जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है
एक पहेली—सी दुनिया ये गल्प भी है ​इतिहास भी है

चिंतन के सोपान पे चढ़ कर चॉंद—सितारे छू आये
लेकिन मन की गहराई में माटी की बू—बास भी है

इंद्रधनुष के पुल से गुजर कर इस बस्ती तक आए हैं
जहॉं भूख की धूप सलोनी चंचल है बिंदास भी है

कंकरीट के इस जंगल में फूल खिले पर गंध नहीं
स्मृतियों की घाटी में यूं कहने को मधुमास भी है

—अदम गोंडवी (Adam Gaundvi)

Wednesday 8 May 2013

आग के पास कभी मोम को लाकर देखूं


आग के पास कभी मोम को लाकर देखूं
हो इजाजत तो तुझे हाथ लगाकर देखूं
दिल का मन्दिर बड़ा वीरान नजर आता है
सोचता हूं तेरी तस्वीर लगाकर देखूं

तूफानों से आंख मिलाओ, शैलाबों पर बार करो
मल्हाओं का चक्कर छोड़ो तैर कर दरिया पार करो
फूलों की दुकानें खोलो खुशबू का व्यापार करो
इश्क खता है तो यह खता एक बार नहीं सौ बार करो

जो जवानियों में जवानी को धूल करते हैं
जो लोग भूल नहीं करते वो भूल करते हैं
अगर अनारकली है शबब बगावत का
सलीम हम तेरी शर्ते कबूल करते हैं

मौसम का ख्याल रक्खा करो कुछ खून में उबाल रक्खा करो
लाख सूरज से दोस्तानां रहे कुछ जुगनू भी पाल रक्खा करो

—राहत इन्दौरी साहब

Sunday 5 May 2013

मैंने आहूति बन कर देखा


मैं कब कहता हूं जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूं जीवन—मरू नंदन—कानन का फूल बने
कांटा कठोर है तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है
मैं कब कहता हूं वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने

मैं कब कहता हूं मुझे युद्ध मैं कहीं न तीखी चोट मिले
मैं कब कहता हूं प्यार करूं तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले
मैं कब कहता हूं विजय करूं मेरा उंचा प्रासाद बने
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली सी याद बने

पथ मेरा प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे
मैं प्रस्तुत हूं चाहे मिटटी जनपद की धूल बने
फिर उसी धूली का कण—कण भी मेरा गति—रोधक शूल बने

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है—
क्या वह केवल अवसाद—मलिन झरते आंसू की माला है
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव—रस का कटु प्याला है
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है।

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया
मैंने आहूति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है
मैं कहता हूं, मैं बढता हूं, मैं नभ की चोटी चढता हूं
कुचला जाकर भी धूली—सा आंधी सा और उमड़ता हूं

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि—धार बने
इस निर्मम रण में पग—पग का रूकना ही मेरा वार बने
भव सारा तुझको है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

अज्ञेय (Ageya)

Saturday 4 May 2013

था तुम्हें मैंने रूलाया


था तुम्हें मैंने रूलाया

हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा
हाय, मेरी कटु अनिच्छा
था बहुत मॉंगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया
था तुम्हें मैंने रूलाया।

स्नेह का कण तरल था,
मधु न था, न सुधा—गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया
था तुम्हें मैंने रूलाया

बूंद कल की आज सागर,
सोचता हूं बैठ तट पर —
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया
था तुम्हें मैंने रूलाया

— बच्चन (Bachhan)